Thursday 12 August 2010

एक पीड़ा,व्यक्तिगत..

मै कहता हूँ
आकाश
अनंत
वो कहतें हैं
ज़मीन
पुख्ता ठोस .
मैं कहता हूँ
उड़ान
उन्मुक्त
वो कहते हैं
रखो पांव
मजबूत भारयुक्त.
मेरे सामने
अनगिनत दिशाएँ
उनकी भी
गहरी उम्मीदें
अपेक्षाएं .
मैं जनता हूँ
मैं मानूंगा नहीं हार
पर उनके सपनो से हो रही
रार लगातार ....
परत-दर-परत
झड़ रही
उष्म संवादों की रोशनाई
समय-दृष्टि भेद जन्य
उनके
मेरे बीच
क्या सचमुच एक गहराती खाई?
क्या मिलेगी क्षमा?
क्या मांगनी चाहिए क्षमा??
-lokesh

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