Tuesday, 17 August 2010

"अजनबियों से सावधान"

शहरों की समझदारी का आग्रह-
"अजनबियों से सावधान",
बस एक छोटी सी मुश्किल है
हमेशा
अजनबियों में ही मिलें
सबसे गहरे दोस्त
बिलकुल अपने-अपनों कि किसी अजनबी परत से हुई
अचानक मुठभेड़
और गहरा हो गया प्रेम
सबसे मजेदार बात तो यह
कि किसी अजनबी से नहीं होती
दुश्मनी
उसके लिए बनानी पड़ती है कोई न कोई
पहचान.
-लोकेश

Thursday, 12 August 2010

एक पीड़ा,व्यक्तिगत..

मै कहता हूँ
आकाश
अनंत
वो कहतें हैं
ज़मीन
पुख्ता ठोस .
मैं कहता हूँ
उड़ान
उन्मुक्त
वो कहते हैं
रखो पांव
मजबूत भारयुक्त.
मेरे सामने
अनगिनत दिशाएँ
उनकी भी
गहरी उम्मीदें
अपेक्षाएं .
मैं जनता हूँ
मैं मानूंगा नहीं हार
पर उनके सपनो से हो रही
रार लगातार ....
परत-दर-परत
झड़ रही
उष्म संवादों की रोशनाई
समय-दृष्टि भेद जन्य
उनके
मेरे बीच
क्या सचमुच एक गहराती खाई?
क्या मिलेगी क्षमा?
क्या मांगनी चाहिए क्षमा??
-lokesh

Tuesday, 10 August 2010

व्याकरण

यह महान सांस्कृतिक देश...
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते.." का देश...
पाणिनि के वंशजों ने
अदभुत व्याकरण साधा है
एक छिद्र में बाँधी
औरत की परिभाषा है.
-lokesh

Thursday, 5 August 2010

अनुभव

प्रेम
निकटता
गहराता
अपनापा
सहेजने
समेटने को
फेंकनी ही पड़ेगी अब
चिलचिलाती नाराजगी
क्रोध
घृणा
दुराव
फिर भी
कम पडूंगा मै
इसीलिए
सबसे है साझा
प्रेम..
निकटता..
गहराता अपनापा..
-लोकेश

Tuesday, 3 August 2010

हत्या

बीबीसी
समाचार
तीस मिनट....
कश्मीर
हिंसा जारी
२९ मारे गए
पिछले एक महीने में.
११०० मरे
बाढ़ में
संख्या बढ़ने की आशंका
पाकिस्तान.
गाज़ा
२० मरे
बम के धमाके से.
इधर एक वर्दी वाले लेखक को है
आपत्ति
नैतिकता की हत्या की है
कुछ दूसरे लेखकों ने....
तीस मिनट
ख़ास खबर
दबा हुआ हत्या का इतिहास.
-लोकेश

Thursday, 8 July 2010

अर्थ-विवेचन

जाने-पहचाने शब्दों के
अजनबी से अर्थ
अक्सर खड़े हो जाते हैं सामने
और अर्थों में निहित
आड़ी-तिरछी
कितनी गलियों
और चौराहों से मंतव्य .....
आकृतियाँ धकेल दी गयी हैं
परछाइयों के पीछे
निषिद्ध विवेचना
क्रिया-विश्लेषण निषिद्ध....
मूढ़ता है
अपराध है
अक्षम्य
देखना मान्य उपलब्धि व
सफलता की चमकती सतह के नीचे...
दोगले अर्थों और मंतव्यों
पर जमी हुई काई कुरेदना है मना
विवेक-दृष्टि की सतह पर जमी धूल की
सफाई है मना
सामाजिक सफलता की चमकती सतह को एलर्जी है
गर्द से
बाहर की हवा से
कहीं जाम न हो जाएँ फेंफड़े !
--लोकेश

Tuesday, 15 June 2010

भोपाल



भो ....पा....ल
1984 की उस रात को
कैसे करना चाहोगे पारिभाषित -
नियति
दुर्घटना
त्रासदी
या
हत्याकांड????

भो...पा...ल..
कैसा लगता है
न्याय की कतार में खड़े होकर
इंतज़ार करना
हिंदुस्तान के हर शहर,कस्बे
गाँव के साथ ?
बेशक तुम आज़ाद हो
कतार में न खड़े होने के लिए
लेकिन
लोकतंत्र का
संविधान का
तकाज़ा है कि तुम इंतज़ार करो
इंतज़ार करो
नहीं तो बाग़ी करार दिए जाओगे
कतार से इनकार करने वालों कि तरह.
-LP
(image courtesy : Raghu Rai)